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जी हाँ बहुत हुआ गरीबी की परिभाषाओं में रोज नित्य नए परिवर्तन करने की मांग का, मुझे यह लगता है की ग़रीबी की परिभाषा रोज रोज बदली जानी ठीक नहीं है इससे क्या है की गरीब ये सोचने में विवश है की गरीब तो हम है लेकिन हमारी ग़रीबी को तय करने के लिए नए नए माई-बाप कहाँ से आ जा रहे है? निश्चित रूप से ये कहने में शर्म आती है की 5 रुपयें में, 12 रुपयें में और कभी कभी ज्यादा दयावान नेता है तो 30 रुपयें में भी गरीब को पेट भर भोजन मिल जाता है की घोषणा कर देते हैं बात ये हैं की अब गरीब लोग भी तंग आ गए है ये सुन सुन कर की 5 ,12 ,30 आखिर कितने में वो पेट भर के खा पाएंगे ? अभी तक तो वो खुद नही तय कर पायें है। परिभाषा की बात रही तो अब राजनीती की परिभाषा बदल देनी चाहिए। क्यूंकि कोई नहीं जानता कौन सा नेता कितने में किसी भी शख्स ,वर्ग की औकाद तय कर दे। देखिये सब को किनारे करिए अमर्त्य सेन के मुद्दे पे बवाल मच गया। क्या कोई व्यक्ति अपनी राय या विचार नहीं दे सकता ? क्या केवल राय, विचार, घोषणा करने का हक केंद्र में बैठे लोगो को है ? इतनी छोटी छोटी बातों पर सम्मानित व्यक्ति से सम्मान लौटने की बात करते है ये लोकतंत्र में अच्छा सूचक नहीं है आखिर उस व्यक्ति ने तो आप से अच्छा ही आर्थिक क्षेत्र में परिभाषा को गढ़ा है तो इतना उबाल एक स्टेटमेंट पे क्यूँ हो रहा है ? आप सब के अन्दर तो आक्रोश तब आ जाना चाहिए जब रोज रोज ग़रीबी की नयी परिभाषा बदली जा रही है आखिर तब क्यूँ नहीं आपके अन्दर आग जलती है ? गलत का साथ कितना भी दे ले। गलत तो गलत ही होता है। वो कभी भी न्याय का स्वालम्बी नहीं कहलायेगा भले आप कुर्सी पे बैठे या सोफे पे आपके तुच्छ विचारों से किसी का कल्याण नहीं होने वाला और स्वयं आपका भी नहीं। भारत में सख्ती से अब राजनीति की परिभाषा बदल देनी चाहिए जिससे ये अघात किसी आम आदमी को न लगे की कोई भी नेता कुछ भी स्टेटमेंट दे तो उसे अपने मूल अस्तित्व पर खतरा न दिखे।
आज के लिए बस इतना ही धन्यवाद।
ऋतु राय
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