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प्रकृति का प्रकोप या कुदरत का कहर

ऋतु समय
ऋतु समय
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man on a bench2-saidaonline

प्रकृति का प्रकोप या कुदरत का कहर चाहे जिस नाम से पुकारें आखिर इसे बुलाया तो हमने ही है। समय अपनी रफ़्तार से चल रहा है और उस समय के साथ हम सब रेस लगाने की कोशिश कर रहे है बस इसी चाह में हम बहुत कुछ पीछे छोड़ रहे है। हम पीछे क्या छोड़ रहे है उसे क्या आप ने मूड़ कर देखा आखिर आप ने क्या खॊया और क्या पाया ? जिस रेस में हम भाग रहे है उस रेस में भागने के पीछे हमने अपने नैतिक चरित्र को पीछे छोड़ दिया है हमने छोड़ दिया है मानवता का पथ , हमने छोड़ा है संवेदना का साथ, हमने छोड़ा है दिल को दिमाग के आगे और फिर भी हमे लगता है हम सर्वश्रेष्ठ है क्यूंकि हमने ऊँची इमारतें बिछा ली है, हमने हौसलों की बुलंदियों पर आकाश में ज़मीन ले ली है, सच्चाई छिपी नहीं है और सत्य को कभी कोई झुका नहीं सकता है वो किसी न किसी रूप में हमारे सामने आकर हमे नीचा दिखाता रहेगा। पैसा शरीर का पोषण कर सकता है लेकिन मन का कभी नहीं। देखिये तकनीकी विकास में आगे बढ़ते बढ़ते हमने बहुत कुछ पीछे छोड़ दिया है। पैसों के आगे रिश्ते , पैसों के आगे फ़रिश्ते क्यूंकि हमें लगता है पैसे से हम सब खरीद सकते है लेकिन नहीं सत्य स्वीकारियें तो कुछ भी नहीं। हाँ इसका सबसे बड़ा उदहारण है उत्तराखंड त्रासदी जो नहीं सीखे वो उससे सिख ले और जो नहीं सीखना चाहते वो ऐसे ही अपने झूठे मुखौटें का भीख दे। वहां पर तड़प-तड़प कर जाने देने वालों को महसूस कीजिये उन्हें तो ईश्वर ने अपने पास बुला लिया लेकिन जो अभी तड़प रहे है उनसे कौन मुखातिब हो ? जो लोग बचे है वो भूख-प्यास से तड़प रहे है और जिनसे मदद की गुहार कर रहे है वो भी उन्हें लूटने में व्यस्त है देखियें इतने बड़े उदाहरण देख-कर भी उनके मन में लूट-पात करने की स्तिथि बनी हुईं है। आखिर यह सब क्यूँ हो रहा है ? क्यूंकि हर आदमी दूसरों को समझने की वजाय उससे फायदे, उसको लुटने की कोशिश करने में लगा है बस उसे किसी भी तरह उससे कुछ फायदा मिल जाये अब जहाँ फायदे की बात होगी वहां रिश्ते-नातें- दोस्ती-फरोस्ती सब भाई पानी में ही जायेगा ना। आप कभी अपने मन के मझदार में झाकियें और कहिए अपने आप से आप की आप आप ही हैं या कोई और आपकी सर्वसत्ता को नियंत्रित कर रहा है ? एक उदाहरण : आज कल अधिकतर लोग क्या करते है रिक्शे वालें 10 या 5 ज्यादा मांग लेंगे तो वो अपना एक से आधा घंटा उससे लड़ने में जाया कर देते है भले कितने पैसे वालें हो लेकिन अगर रिक्शे वालें को 5 ज्यादा दे दिया तो उस वक़्त अपने आपको सबसे गरीब समझने लगते है और वही बात दूसरी जगह आ जाए तो 1000 भी खर्च करने में गरीबी नहीं महसूस होती है बेटे ने मांगे तो उसकी डिमांड के अनुसार दे दिया पार्टी में तो भाई क्या पूछना उसमे तो जितना लुटा दो कम है लेकिन रिक्शे वालें को 5  या 10 देने में इतनी उलझन क्यूँ होती है वो तो खून-पसीने से कमातें है अपनी कमाई ही मांगते है लेकिन देने में इंसान मना कर देता है क्यूंकि वो छोटा आदमी है उससे बहस की जा सकती है उसके आगे बड़ा बनाने से कोई फायदा तो होने वाला नहीं है और पार्टी में हज़ार-लाख खर्च करेंगे तो बड़ा आदमी कहलायेंगे यही सब चीज़ें इंसान के ज़मीर को बेचती जा रही है और मेरे इस लेख का अंतिम सन्देश यह है की जीवन चक्र की भाँती है अच्छा बुरे से सभी को सामना करना है इसलिए अपने मानवीय भूलों को कम करने का प्रयास करें और सभी के साथ समतुल्य व्यहवार करें। क्यूंकि आप जो दूसरों को देते है वो वापिस आपको लौटता है।

ऋतु राय

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